❤श्री बालकृष्ण लाल❤

 
❤श्री बालकृष्ण लाल❤
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मैं बलि स्याम, मनोहर नैन । जब चितवत मो तन करि अँखियन, मधुप देत मनु सैन ॥ कुंचित, अलक, तिलक गोरोचन, ससि पर हरि के ऐन । कबहुँक खेलत जात घुटुरुवनि, उपजावत सुख चैन ॥ कबहुँक रोवत-हँसत बलि गई, बोलत मधुरे बैन । कबहुँक ठाढ़े होत टेकि कर, चलि न सकत इक गैन ॥ देखत बदन करौं न्यौछावरि, तात-मात सुख-दैन । सूर बाल-लीला के ऊपर, बारौं कोटिक मैन ॥ भावार्थ :-- (माता कहती है-) श्याम के मनोहारी नेत्रों की मैं बलिहारी जाती हूँ । जब मेरी ओर आँखें कर के वह मेरे मुख की ओर देखता है तो लगता है मानो भौंरे ही कोई संकेत कर रहे हैं । हरि के चन्द्रमुख पर घुँघराली अलकें छायी हैं और (भाल पर) गोरोचन का तिलक लगा है । कभी घुटनों चलते हुए खेलता है और सुख-चैन उत्पन्न करता है, कभी रोता है, कभी हँसता है, मैं तो उसकी मधुर बाणीपर बलि जाती हूँ । कभी हाथ टेककर खड़ा ही जाता है, किंतु अभी एक पद भी नहीं चल सकता । उसका मुख देखकर मैं अपने आपको न्यौछावर करती हूँ, वह माता-पिता को सुख देनेवाला है । सूरदास जी कहते हैं - इस बाललीला के ऊपर करोड़ों कामदेवों को न्यौछावर करता हूँ ।
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shwetashweta
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